ओएमजी-2 के बहाने से एक बेहद ज़रूरी और संवेदनशील विषय को छुआ है लेखक और निर्देशक अमित राय ने। सेक्स एजुकेशन अब इसलिए भी अधिक आवश्यक है क्योंकि ग़लत और गुमराह करने वाली सारी चीजें मोबाइल के ज़रिए हमारे बच्चों की मुट्ठी में बंद है। अगर उन्हें समय पर सही जानकारी घर और स्कूल में नहीं मिलेगी तो वह अपने तरीके से उसका हल ढूंढने की कोशिश करेंगे और ऐसे में संभव है कि एक के बाद दूसरी और दूसरी के बाद तीसरी और ऐसी कई गलतियाँ करते चले जाएंगे और उन्हें बचाने वाला कोई नहीं मिलेगा। मिलेंगे तो और अधिक गुमराह करने वाले लोग जो पैसे और व्यापार के लालच में किशोर हो रहे बच्चों के मानसिक द्वंद का फ़ायदा उठाने से भी पीछे नहीं हटेंगे। फ़िल्म में ऐसे ही शातिर लोगों का शिकार हो जाता है कांति शाह मुद्गल (पंकज त्रिपाठी) का किशोर उम्र का बेटा जो सवोदय इंटरनेशनल स्कूल का छात्र है। सहपाठियों द्वारा बुली किए जाने की वज़ह से कुछ ऐसा कर बैठता है कि उसके अपराध बोध के चलते अपनी जान देने चला जाता है। अपने बेटे की ज़िंदगी बचाने, संवारने और उसे अपराधबोध से बाहर निकालने के लिए कांति शाह मुद्गल को क्या-क्या करना और सहना पड़ता है, कौन है जो इस मुसीबत की घड़ी में उन्हें राह दिखाता है ओएमजी की पूरी कहानी इसी पर आधारित है। पंकज त्रिपाठी महाकाल के पक्के भक्त हैं और उज्जैन के महाकालेश्वर मंदिर के बाहर पूजा सामग्री की दुकान लगाते हैं। अपनी पत्नि, बेटी और बेटा के साथ बहुत साधारण जीवन जीवन जीते हैं लेकिन जब बात बेटे पर आती है तो स्कूल प्रशासन, मेडिकल स्टोर, नीम हकीम सहित अपने ऊपर भी केस कर देते हैं। महाकाल का हाथ और साथ पाकर वह क्या कुछ कर गुजरते हैं यह जानने के लिए फ़िल्म देखना पड़ेगा।
फ़िल्म के सभी कलाकारों का चयन बहुत सोच समझकर किया गया है। पंकज त्रिपाठी, अक्षय कुमार, यामी गौतम, पवन मल्होत्रा, अरुण गोविल, गोविंद नामदेव मुख्य भूमिका में हैं। पंकज त्रिपाठी अभिनय में बेजोड़ हैं। फ़िल्म में उनकी ऐक्टिंग, उनके बोलने का लहजा, उनका सेंस ऑफ ह्यूमर, उनकी टाइमिंग सब कुछ परफेक्ट है। अक्षय कुमार महाकाल के रोल में अच्छे दिखे हैं ख़ासकर तब जब अस्पताल में पंकज त्रिपाठी को वह साक्षात दर्शन देते हैं। यामी गौतम एक दमदार वकील की भूमिका में है जो अपने ससुर जी के स्कूल की तरफ से और पंकज त्रिपाठी के खिलाफ़ लड़ती हुई ग्रे शैड में नज़र आती हैं पर फ़िल्म के आख़िरी में उनकी मुस्कराहट बताती है कि उनका हृदय परिवर्तन हो चुका है। पवन मल्होत्रा जज की भूमिका में एकदम खरे उतरे हैं। अरुण गोविल, गोविंद नामदेव और अन्य कलाकार अपने रोल के साथ न्याय करते हुए नज़र आए।
फ़िल्म के निर्माता हैं अरुणा भाटिया, विपुल डी शाह, राजेश बहल और अश्विन वर्डे।
फ़िल्म किशोर बच्चों, उनकी समस्या और जिज्ञासा के बारे में है पर फ़िल्म को A सर्टिफिकेट मिला है यानि माता-पिता के माध्यम से ही बच्चों की समस्या को सुलझाने का प्रयास किया गया है। फ़िल्म भले ही सेक्स एजुकेशन और उसकी अहमियत पर है पर अगर हम ध्यान से देखने और समझने की कोशिश करेंगे तो पाएंगे कि कोर्ट में बहस के दौरान कुछ कुछ ऐसी बातें होती हैं जो बेटों की परवरिश करने के तरीके पर भी सोचने पर मज़बूर करती है। कोर्ट में बहस के दौरान पंकज त्रिपाठी एक सेक्स वर्कर (महिला) से पूछते हैं कि आपके पास इतने सारे मर्द आते हैं सुख के लिए क्या कभी आपको भी उनसे कोई सुख मिलता है? वह कहती है नहीं, वे लोग अपने सुख के लिए आते हैं, कोई उसके बारे में नहीं सोचता कि उसे क्या पसंद या क्या नहीं पसंद। फ़िल्म में सेक्स वर्कर बोल रही थी लेकिन अगर घर की औरतों के बारे में भी सोचा जाये तो अधिक फ़र्क नहीं मिलेगा देखने को। हमारे समाज में पुरुषों को कैसे ख़ुश रखा जाए, उनकी पसंद नापसंद का कैसे ध्यान रखा जाए यह बात तो औरतों को परिवारों में सिखाई जाती है लेकिन औरतों के साथ कैसे व्यवहार किया जाए यह बात पुरुषों को शायद ही सिखाई जाती है।
हमारी परवरिश में कुछ तो गडबड है जो कई बार मैं ख़ुद महसूस करती हूँ। लड़के ल़डकियों के परवरिश में एक बड़ा भेदभाव देखने को मिलता है जिसका खामियाज़ा न सिर्फ़ ल़डकियों को ब्लकि लड़कों को भी भुगतना पड़ता है। सेक्स एजुकेशन ही ले लीजिए। वैसे तो हमारे समाज और परिवारों में बहुत खुलकर इस विषय पर बातचीत नहीं होती फिर भी ल़डकियों को इस बारे में थोड़ा बहुत बता दिया जाता है भले ही माँ के द्वारा। माएँ एक्सर अपनी बेटियों को गुड टच, बैड टच, पीरियड आदि के बारे में बताती हैं लेकिन बेटा पैदा होते ही माता पिता गंगा नहा लेते हैं। बेटे के सुख सुविधाओं का ध्यान रखते हुए वे भूल जाते हैं कि उनका भी शारीरिक शोषण हो सकता है और होता भी है, किशोर होते बेटों के शरीर और मन में भी बदलाव होता है जिस पर बेटों से बात की जानी चाहिए। हमें याद रखना चाहिए कि जितना ज़रूरी है हमारी बेटियों के साथ ग़लत न हो उतना ही ज़रूरी है हमारे बेटे ग़लत के भागीदार न बनें।
फ़िल्म का असली श्रेय निस्संदेह लेखक और निर्देशक अमित राय को जाता है जिन्होंने इतने सीरियस और टैबू समझे जाने वाले विषय पर न सिर्फ़ फ़िल्म बनाने की हिम्मत दिखाई बल्कि उसके साथ न्याय भी किया। ऐसे विषयों पर फ़िल्म बनाते समय हर छोटी छोटी बात का भी बड़ा ध्यान रखना पड़ता है क्योंकि ज़रा सी लापरवाही से फ़िल्म मुद्दे से भटककर फूहड़ कॉमेडी में तब्दील हो सकती है। फ़िल्म की स्क्रिप्ट और निर्देशन पर कमांड की बदौलत शरीर के हर अंग वकील कामिनी (यामी गौतम) के शब्दों में प्राइवेट पार्ट का उच्चारण भी इतने सहज ढंग से किया गया है कि कोई भी शब्द अश्लील नहीं लगता। वेद, पुराण, काम शास्त्र, स्कूल में लगने वाले चार्ट, पोस्टर का सहारा लेते हुए जिस तरह से सेक्स एजुकेशन जैसे सेंसिटिव विषय को समझने और समझाने का प्रयास किया गया है वह काबिलेतारीफ़ है। फ़िल्म में हास्य व्यंग्य का भरपूर इस्तेमाल किया गया है। यही वज़ह है कि 156 मिनट की यह फ़िल्म कभी भी बोझिल नहीं जान पड़ती। एक पल हँसा देती है तो दूसरे किसी पल आँखों में आंसू भी ला देती है और सबसे ज़रूरी बात सोचने पर मज़बूर करती है। माता- पिता और बच्चों के बीच के गैप को भरने की बात करती है।
फ़िल्म 11 अगस्त को रिलीज हुई है। वीकेंड और स्वतंत्रता दिवस की छुट्टी बढ़िया मौका है कुछ बेहतर देखने का, जानने का, सोचने का और ख़ुद को टटोलने का…
Nivedita Singh