अधिकार और कर्तव्य एक ही सिक्के के दो पहलू हैंl पहले माता- पिता सिर्फ़ पुत्र को ही संतान समझते थे और यह बात मैं हवा में कतई नहीं कह रही हूँ..ऐसे कई लोगों को जानती हूँ जिन्होंने यह पूछने पर कि कितने बच्चे हैं सिर्फ़ बेटों की गिनती की..कई मुलाक़ातों के बाद पता चला कि दो बेटे के अलावा दो बेटियाँ भी हैं यानि चार बच्चों को दो बताया गया. .
दूसरा कुछ लोग ऐसे भी मिले जिनकी किसी वज़ह से सिर्फ़ एक बेटी ही है पर कई महीनों तक वह यही बताते रहे कि उनके बेटे -बहू हैं जो बाहर रहते हैं. .वर्षों बाद यह भेद तब खुला जब बुढ़ापे में बेटी दामाद साथ रहने आए. .
ऐसे एक नहीं कितने ही उदाहरण हैं हमारे आसपास.. यह सच है कि पहले बेटियाँ सिर्फ़ बेटों की आस में पैदा हो जाती थी और माँ पिता उन्हें दिल से हमेशा पराया ही समझते जताते भले नहीं थे हाँ पूरा घर सम्भालने वाली बेटी के बिदाई के वक़्त उससे बिछड़ने का दुःख ज़रूर उन्हें होता था. .मेरे अपने ही रिश्तेदारों ने बेटे के चक्कर में बेटियों की लाइन लगा दी और बेटियों का हक मारकर करोड़ों की प्रॉपर्टी सिर्फ अपने इकलौते बेटे के लिए तैयार की जबकि वह पाँचों बेटियाँ भी उनकी अपनी ही थी..बेटियों को पांचवीं, आठवीं क्लास तक पढ़ाकर उनकी शादी कर दी..
मेरी माँ को गांव से लेकर शहर तक कौन ऐसा होगा जिसने एक बेटा पैदा करने की नसीहत न दी होगी..कुछ आंटी ने तो यहां तक कह दिया कि किसी को बताने की ज़रूरत क्या चेक करा लीजिए और बेटी हो तो abortion करा दीजिए..घर वालों को तब बताओं जब लड़का हो..ये बातें तो 30-35 साल पुरानी है पर आज भी दो बेटियों की माँ को लोग एक बेटा पैदा करने की सलाह देने से पीछे नहीं हटते..लड़का एक हो तो भी परिवार पूरा हो जाता है पर बेटी दो-तीन होने पर भी परिवार अधूरा ही रह जाता है..
अब ऐसे में जब बेटा माँगी मुराद और बेटी अपने आप उग आयी घास पूस हो तो सीधी सी बात है उसको उखाड़ कर फेंका ही जाएगा बेटियों के मामले में उन्हें बिदा कर दिया जाएगा यानि दूसरे घर..हमारे यहाँ पुरुष इतना सीधा तो है नहीं जो अपने खून पसीने की कमाई या पुस्तैनी धन को किसी और के घर जाने देगा इसलिए उसने सत्ता और धन का हस्तांतरण सिर्फ़ बेटों को किया बेटियों को नहीं क्यूंकि वह पैदायशी पराया हैं..
पर यहाँ यह बात भी देखी जानी चाहिए कि पहले माता पिता बेटियों को हिस्सा नहीं देते थे तो बेटी के घर (जो कि उसका कभी नहीं होता था..वह मात्र सहायिका और वंश देने का साधन मात्र होती थी) का पानी भी नहीं पीते थे यानि गलती से भी उसे अपना मानने की गलती न हो जाए..बेटियां इतनी पढ़ी लिखी और आत्मनिर्भर होती नहीं थी कि माता पिता और पति की मर्जी के बिना कुछ सोच और कर पायें..
मतलब साफ था न ल़डकियों को कुछ देंगे न उनसे किसी तरह की कोई सेवा की उम्मीद करेंगे..लड़कों को हिस्सा देते थे और बदले में बहू से जी भरकर सेवा करवाते थे..
पर धीरे -धीरे अब थोड़ा बदलाव दिखने लगा है. .बहुत सारे लोग हैं जिनकी दो बेटियाँ हैं और ऐसे लोग अपनी बेटियों के साथ खुश हैं..पहले के लोग जिनके बेटा बेटी दोनों हैं उन लोगों को बदलने में थोड़ा वक़्त लगेगा अभी..वो लोग बेटियों को पढ़ा लिखा तो रहे लेकिन हिस्सा देने की हिम्मत अभी नहीं जुटा पाए हैं.. बेटियाँ भी अपना हिस्सा नहीं मांग पा रही और न ही माता पिता के लिए अपनी जिम्मेदारी महसूस करती हैं..इन बेटियों के लिए माता पिता की जिम्मेदारी सिर्फ़ भाई भाभियों की है..
अब नयी शुरुआत करने का समय है और यह शुरुआत माता पिता को ही करनी होगी. .बेटे बेटी दोनों को बराबर प्यार और हिस्सा दें और दोनों से अपने कर्तव्यों को निभाने के लिए भी कहें..जो माता पिता की सेवा न कर सके, उनके प्रति जिम्मेदारी न निभा सके उसे हिस्सा पाने का भी कोई अधिकार नहीं फिर वह बेटा हो या बेटी इससे फ़र्क ही नहीं पड़ना चाहिए..
माता पिता की प्रॉपर्टी में बेटा बेटी दोनों का हक है और उनका ध्यान रखना दोनों की ज़िम्मेदारी. .माता पिता की जिम्मेदारी है कि बेटा बेटी दोनों की अच्छी परवरिश करें और दोनों को आत्मनिर्भर होने के लिए प्रयास करें ..
रक्षाबंधन पर भाई बहन दोनों एक दूसरे का साथ देने और दिल से सम्मान करने का वादा करें ..नेह का बंधन है इसे प्रेम से मनाएं..हक़ हिस्से का मसला माता पिता ही सुलझा दें तो बेहतर है. .
फोटो पिछले रक्षाबंधन की है जिसमें मेरा बेटा बहन को राखी बांध रहा, बहन की आरती कर रहा, बहन को मिठाई खिला रहा बिल्कुल वैसे ही जैसे बहन उसके लिए करती है..
Nivedita Singh