मुझे फ़िल्में देखने का शौक है हालांकि यह शौक़ बीते समय के साथ कम हुआ है जिसका कारण बढ़ती उम्र के साथ बढ़ती ज़िम्मेदारियां और कोरोना काल में कई महीनों तक मल्टीप्लेक्स का बंद रहना है। यह बात और है कि ओटीटी भी कोरोना काल की ही देन है जिसने लोगों को फ़िल्म, वेब सीरीज और दूसरे अन्य प्रोग्राम अपने हिसाब से देखने की सहूलियत दी है। जाने क्यों मुझे अभी भी मल्टीप्लेक्स में ही फ़िल्म देखने में मज़ा आता है और वो भी रिलीज़ होने के पांच – सात दिन के भीतर, कुछ साल पहले तक पहले तक यह समय सीमा मात्र तीन दिन थी । बहुत सारी फ़िल्मे मैं इसलिए नहीं देख पाई कि रिलीज़ होने के तीन दिन के भीतर मुझे समय या अवसर नहीं मिला। मेरे द्वारा देखी जाने वाली दस फ़िल्मों में से नौ ऐसी होती हैं जो प्री प्लांड होती हैं यानि उन फ़िल्मों के रिलीज़ होने के पहले से मुझे पता होता है कि इस फ़िल्म को मुझे देखना ही देखना है। एकाध फ़िल्म ही ऐसी होती है जिसे अचानक देखने का मन बन जाता है। हाल ही में रिलीज़ हुई मेरी क्रिसमस ऐसी ही फ़िल्म थी। कभी कभार ऐसा भी होता है कि कोई किसी फ़िल्म को देखने के लिए रेकमेंड कर दे तो देख लेती हूं। मज़ेदार बात यह है कि फ़िल्म चमकीला इन तीनों कैटेगरी में से किसी में भी फिट नहीं होती है।
जानवर जैसी फ़िल्म सौ करोड़ क्लब में कैसे शामिल
चमकीला देखने की मेरी कोई प्लानिंग नहीं थी। लेकिन चमकीला अपनी क़िस्मत ख़ुद चमकाने में लगी है। हां ना के बीच झूलते हुए चार दिन लगे पूरी फिल्म देखने में। फ़िल्म नेटफ्लिक्स पर हप्ते भर पहले रिलीज़ हुई है लेकिन उसके बाद कोई ऐसा दिन नहीं जिस दिन आठ – दस लोग इसके बारे में न लिख रहे हों। आधे फ़िल्म की तारीफ़ में कसीदे गढ़ रहे तो आधे फ़िल्म को अश्लीलता का सर्टिफिकेट देते हुए फ़िल्म और फ़िल्म के डायरेक्टर दोनों को पानी पी पी कर गरियाने में लगे हैं। मेरे जैसे कम बुद्धि के लोग फ़िल्म देखने के बाद यह सोच रहे कि ऐसे सुसंस्कारी लोगों के बीच जानवर जैसी फ़िल्म सौ करोड़ क्लब में कैसे शामिल हो जाती है। ख़ैर जिस फ़िल्म को देखा ही नहीं उस पर फोकट में समय क्यों ही बर्बाद किया जाए इसलिए जानवर को उसके हाल पर छोड़ चमकीला पर बात करते हैं। मैं दावा तो नहीं करती पर मुझे ऐसा लगता है कि चमकीला ओटीटी पर रिलीज़ होने वाली शायद पहली ऐसी फ़िल्म है जिस पर इतनी अधिक चर्चा हो रही।
पंजाबी गायक अमर सिंह चमकीला की बायोपिक
चमकीला पंजाबी गायक अमर सिंह चमकीला की बायोपिक है और इस रोल को प्ले किया है दिलजीत दोसांझ ने। दिलचीज ख़ुद भी पंजाबी हैं और सिंगर भी हैं यह उनके लिए प्लस प्वाइंट है इस रोल को करने के लिए। उन्होंने ख़ुद को चमकीला के कैरेक्टर में ऐसे ढाल लिया है कि अगर आर्काइवल फुटेज न हो तो हमें याद भी नहीं रहेगा कि असली चमकीला कोई और है। फ़िल्म में चमकीला की पत्नी अमरजोत के रोल में हैं परिणीति जो पूरी फ़िल्म में चमकीला के साथ राग से राग मिला रही। परिणीति अपने रोल में परफेक्ट हैं पर जैसा कि बायोपिक में होता है कि दूसरे आर्टिस्ट के लिए ज़्यादा स्कोप नहीं बचता है। इसलिए फ़िल्म चमकीला के ही इर्द गिर्द घूमती हैं।
अलगाववादी, पुलिस, धर्म के ठेकेदार सभी उसकी जान के दुश्मन बने
चमकीला पंजाबी सिंगर है और उस पर अश्लील गाने लिखने और गाने का आरोप है। हालांकि उसके गाने लगभग लगभग वैसे ही हैं जैसे ग्रामीण अंचलों, कुछ लोकगीतों और शादी ब्याह के अवसर पर गाए जाते हैं। जिन लोगों का बचपन या जवानी गांव में बीता है वह लोग अच्छी तरह जानते हैं कि गांव में शादी विवाह के अवसर पर गाए जाने वाले गीत कई बार इससे भी अधिक बोल्ड या फ़िल्म की ज़ुबान में कहें तो अश्लील होते हैं। फ़िल्म देखते हुए यह समझना दिलचस्प है कि क्या चमकीला सिर्फ़ अश्लील गानों की वज़ह से लोगों की आंखों में चुभ रहा। क्या इसके पीछे उसके साथी कलाकारों की जलन, उसकी नीची जाति आदि वज़ह नहीं रही। अलगाववादी, पुलिस, धर्म के ठेकेदार सभी उसकी जान के दुश्मन बने हैं। कैसे वह इनका शिकार बनता है देखने के लिए फ़िल्म देखनी पड़ेगी।
इम्तियाज़ अली का अपनी फिल्मों के सब्जेक्ट को ट्रीट करने का अलग अंदाज़ है और यह इस फ़िल्म में भी दिखाई पड़ता है। क्या सही, क्या गलत से परे जो जैसा है उसे वैसा ही दिखाने का प्रयास है। फ़िल्म में किसी भी गलती को ग्लोरिफाई नहीं किया गया है बल्कि एक व्यक्ति के सोशल बिहेवियर के पीछे के कारणों को समझने की कोशिश भर है कि कोई जैसा है वैसा क्यों है, लेकिन यह भी निर्देशक ने दर्शकों पर ही छोड़ा है। फ़िल्म में कई ऐसे छोटे लेकिन महत्वपूर्ण डायलॉग है जिससे दर्शक आसानी से रिलेट कर पाते हैं।
फ़िल्म में गाने के सीक्वेंस इतने अधिक हैं कि कई बार फ़िल्म की रिदम टूटती है जिसे शायद थोड़ा कम किया जा सकता था। नए- पुराने को साथ साथ (डबल स्क्रीन) दिखाने के चक्कर में कई बार डॉक्यूमेंट्री का एहसास भी होता है पर हर फ़िल्म हर एंगल से हर समय परफेक्ट हो यह भी ज़रूरी नहीं।
दिलजीत दोसांझ और परिणीति के अलावा अंजुम बन्ना (टिक्की), और अनुराग अरोड़ा डीएसपी की भूमिका में हैं। संगीत ए आर रहमान ने दिया है । कुछ आधे कुछ पूरे पंजाबी गाने पूरी फ़िल्म में भरे पड़े हैं लेकिन ज़ुबान पर चढ़ने लायक जैसे नहीं हैं। निर्माता मोहित चौधरी, सेलेक्ट मीडिया होल्डिंग्स एलएलपी, सारेगामा, विंडो सीट फिल्म्स है।
—Review By Nivedita Singh